हिमालयी राज्यों में हाल की आपदाएँ
वर्ष 2025 में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में गंभीर आपदाएँ देखी गईं। देहरादून और मंडी में बादल फटने से आकस्मिक बाढ़ आई, जबकि मसूरी 48 घंटे से अधिक समय तक देश के बाकी हिस्सों से कटा रहा। पंजाब ने अपने इतिहास की सबसे भीषण बाढ़ों में से एक का सामना किया, जिसमें हज़ारों गाँव जलमग्न हो गए। ये घटनाएँ हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र की नाज़ुक स्थिति को उजागर करती हैं।
स्थैतिक तथ्य: हिमालय भूवैज्ञानिक दृष्टि से युवा वलित पर्वत हैं, जो लगभग 5 करोड़ वर्ष पूर्व भारतीय और यूरेशियाई प्लेटों की टक्कर से बने।
नाज़ुक भूभाग और अवसंरचना परियोजनाएँ
हिमालय की नाज़ुक भूगर्भीय संरचना इसे भूस्खलन और क्षरण के प्रति संवेदनशील बनाती है। राजमार्गों, सुरंगों, रोपवे और जलविद्युत परियोजनाओं जैसे तेज़ विकास कार्यों ने पारिस्थितिक अस्थिरता को बढ़ाया है। उत्तराखंड में चार धाम सड़क परियोजना के तहत बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई और संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण किया गया, जिससे पर्यावरणीय मानकों का उल्लंघन हुआ। विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि अनियंत्रित विस्तार आपदाओं के जोखिम को और गहरा करता है।
बादल फटने से ऊर्जा का विस्फोट
बादल फटने की घटनाओं में कम समय में सीमित क्षेत्र में अत्यधिक वर्षा होती है। पानी और मलबे का विशाल प्रवाह अत्यधिक बल के साथ नीचे गिरता है और अपने मार्ग में आने वाली हर चीज़ को नष्ट कर देता है। 1,000 टन द्रव्यमान का 1 किलोमीटर गिरना लगभग 10 गीगाजूल ऊर्जा उत्पन्न करता है, जो पूरे बस्तियों को मिटाने के लिए पर्याप्त है। ऐसे हादसे अनियंत्रित और अत्यंत विनाशकारी होते हैं।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
जलवायु परिवर्तन ने जल चक्र को तीव्र कर दिया है, जिससे वाष्पीकरण और वायुमंडलीय नमी बढ़ गई है। इसका परिणाम है अधिक बार और अधिक तीव्र वर्षा। आर्कटिक जेट स्ट्रीम का ढहना वैश्विक मौसम को बाधित करता है, जिससे यूरोप में हीटवेव और दक्षिण एशिया में भारी बारिश होती है। हिमालयी ग्लेशियरों के पीछे हटने से बाढ़ का जोखिम और बढ़ जाता है, जिससे निचले इलाकों की बस्तियाँ खतरे में हैं।
स्थैतिक टिप: हिमालय में 9,500 से अधिक ग्लेशियर हैं, जो लगभग 33,000 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले हैं, इसी कारण इन्हें पृथ्वी का “तीसरा ध्रुव” कहा जाता है।
पर्यावरणीय क़ानूनों का कमजोर अनुपालन
भागीरथी इको-सेंसिटिव ज़ोन (BESZ) जैसी सुरक्षात्मक व्यवस्थाएँ मौजूद हैं, पर उनका पालन कमजोर है। वनों की कटाई और टुकड़ों में दी जाने वाली स्वीकृतियाँ जारी रहती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अनियंत्रित पर्यटन और लापरवाह निर्माण पर चिंता जताई है। हिमाचल प्रदेश ने लगातार आपदाओं के बाद नए भवन निर्माण अस्थायी रूप से रोक दिए, जो कड़े पर्यावरणीय शासन की तात्कालिक ज़रूरत को दर्शाता है।
बाढ़ मैदान और आपदा तैयारी
पुराने नदी मार्गों और बाढ़ मैदानों में बस्तियाँ अत्यधिक संवेदनशील रहती हैं। मचैल माता यात्रा शिविर जैसी जगहें आकस्मिक बाढ़ में बह गईं। अधिकारियों को बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में स्थायी निर्माण को रोकना चाहिए और प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों को मजबूत करना चाहिए। आपदा जोखिम में कमी दीर्घकालिक योजना और जन-जागरूकता पर निर्भर करती है।
क्षेत्रीय और वैश्विक प्रभाव
हिमालयी संकट वैश्विक चरम मौसम पैटर्न का प्रतिबिंब है। दक्षिण एशिया, यूरोप और उत्तर अमेरिका बाढ़, भूस्खलन, जंगल की आग और हीटवेव जैसी बढ़ती चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। ये आपदाएँ कृषि, अवसंरचना और आर्थिक स्थिरता को प्रभावित करती हैं। जोखिमों को कम करने और नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा के लिए समन्वित अंतरराष्ट्रीय जलवायु कार्रवाई और सतत विकास आवश्यक हैं।
Static Usthadian Current Affairs Table
विषय | विवरण |
हाल की आपदाएँ | देहरादून, मंडी में बादल फटना; पंजाब और जम्मू-कश्मीर में बाढ़ |
नाज़ुक भूभाग | राजमार्ग, जलविद्युत और चार धाम परियोजना जोखिम बढ़ाते हैं |
बाढ़ की ऊर्जा | 1000 टन द्रव्यमान का 1 किमी गिरना = 10 गीगाजूल |
जलवायु प्रभाव | आर्कटिक जेट स्ट्रीम का ढहना दक्षिण एशिया में बारिश बढ़ाता है |
ग्लेशियर पीछे हटना | हिमालय = “तीसरा ध्रुव” (9,500 ग्लेशियर) |
पर्यावरणीय क़ानून | BESZ है, लेकिन अनुपालन कमजोर |
सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका | लापरवाह निर्माण और पर्यटन पर चिंता जताई |
बाढ़ मैदान जोखिम | मचैल माता शिविर बाढ़ से बह गया |
तैयारी की आवश्यकता | भूमि उपयोग योजना और प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली |
वैश्विक संबंध | जलवायु परिवर्तन से विश्वभर में चरम मौसम घटनाएँ बढ़ रहीं |