तमिल के लिए बलिदान को श्रद्धांजलि
2025 से, तमिलनाडु सरकार ने आधिकारिक रूप से ‘தமிழ் மொழி தியாகிகள் நாள்’ (तमिल भाषा शहीद दिवस) मनाने की घोषणा की है। यह दिन 1930 के दशक में हिंदी थोपे जाने के विरोध में जान गंवाने वाले आंदोलनकारियों की स्मृति में मनाया जा रहा है।
यह दिन हिंदी को स्कूलों में अनिवार्य विषय बनाए जाने के खिलाफ शुरू हुए भाषा आंदोलन की ऐतिहासिक चेतना को ताज़ा करता है और तमिल अस्मिता की रक्षा में दिए गए बलिदानों को सम्मानित करता है।
विरोध की शुरुआत कैसे हुई?
1938 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने कक्षा 6 से 8 तक के छात्रों के लिए हिंदी को अनिवार्य कर दिया, जिससे तमिल समाज में व्यापक विरोध उभरा। इसे तमिल पहचान पर हमला माना गया, और 3 जून 1938 से आंदोलन की शुरुआत हुई।
शहीद हुए आंदोलन के अग्रदूत
इस आंदोलन के दौरान दो युवकों ने अमर बलिदान दिया—थलमुथु (थंजावुर) और नटरासन (पेरम्बूर)। दोनों ने सक्रिय रूप से प्रदर्शन में भाग लिया, गिरफ्तार किए गए और हिरासत में ही उनकी मृत्यु हो गई। वे तमिल भाषा के अधिकारों की रक्षा के लिए शहीद होने वाले प्रथम युवा चेहरों में से हैं।
सांस्कृतिक और राजनीतिक महत्व
‘தமிழ் மொழி தியாகிகள் நாள்’ की आधिकारिक मान्यता तमिलनाडु सरकार द्वारा भाषा आंदोलनकारियों के बलिदान को राज्य स्तर पर सम्मानित करने का संकेत है। यह कदम तमिल सांस्कृतिक पहचान और भाषिक अधिकारों की सुरक्षा में राज्य की प्रतिबद्धता को फिर से स्पष्ट करता है।
इस दिन का आयोजन नई पीढ़ी को तमिल भाषा के इतिहास, संघर्ष और गौरवशाली परंपराओं से जोड़ता है और यह बताता है कि तमिलनाडु ने हमेशा संस्कृतिक दमन के विरुद्ध दृढ़ता से संघर्ष किया है।
Static GK Snapshot (प्रतियोगी परीक्षाओं हेतु)
श्रेणी | विवरण |
दिवस का नाम | தமிழ் மொழி தியாகிகள் நாள் (तमिल भाषा शहीद दिवस) |
पहली आधिकारिक घोषणा | 2025 |
आंदोलन की शुरुआत | हिंदी थोपने के विरोध में 1938 |
प्रमुख तिथि | 3 जून 1938 |
प्रमुख शहीद | थलमुथु (थंजावुर), नटरासन (पेरम्बूर) |
नीति कारण | कक्षा 6–8 में हिंदी को अनिवार्य बनाना |
ऐतिहासिक महत्व | तमिल भाषा के लिए बलिदान की स्मृति और सम्मान |