जलवायु परिवर्तन और आपदाएँ विस्थापन को नई ऊँचाइयों पर ले जा रही हैं
आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र (IDMC) द्वारा जारी 2025 की वैश्विक रिपोर्ट में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। 2024 में 4.58 करोड़ लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हुए—जो 2008 के बाद से सबसे अधिक है। इनमें से लगभग 99.5% विस्थापन जलवायु से संबंधित आपदाओं के कारण हुआ। अकेले भारत में 54 लाख लोग विस्थापित हुए, जिनमें अधिकांश बाढ़ के कारण और मणिपुर में संघर्ष से 1,000 लोग बेघर हुए।
कौन हैं जलवायु शरणार्थी?
जलवायु शरणार्थी वे लोग हैं जिन्हें जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय आपदाओं के कारण अपना घर छोड़ना पड़ता है। समुद्र स्तर में वृद्धि, बाढ़, सूखा और जंगल की आग उन्हें असुरक्षित बना देते हैं। उदाहरण के लिए, बांग्लादेश में समुद्र के बढ़ते स्तर के कारण 11 करोड़ तक लोगों के विस्थापित होने का खतरा है। भारत में 2015 से 2019 के बीच भूमि क्षरण दोगुना हो गया, जिससे 3 करोड़ हेक्टेयर से अधिक भूमि प्रभावित हुई।
कानूनी खामियाँ और नागरिकता संकट
चौंकाने वाली बात यह है कि जलवायु शरणार्थियों को 1951 के शरणार्थी सम्मेलन के तहत कानूनी संरक्षण नहीं प्राप्त है, क्योंकि यह केवल नस्ल, धर्म या राजनीति के आधार पर उत्पीड़न से भागने वालों की रक्षा करता है। प्राकृतिक आपदा या पारिस्थितिकीय संकट के आधार पर शरण नहीं मिलती। भारत, अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे देशों में जलवायु प्रवासियों के लिए कोई आधिकारिक शरण नीति नहीं है, जिससे उन्हें निर्वासन, नागरिकता विहीनता और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी का सामना करना पड़ता है।
भारत की स्थिति और आगे की राह
भारत की स्थिति चिंताजनक है। घनी आबादी और लगातार जलवायु घटनाओं जैसे असम की बाढ़ और बंगाल के चक्रवातों के कारण करोड़ों लोग विस्थापन के खतरे में हैं। हालांकि आपदा राहत कार्य सक्रिय हैं, लेकिन दीर्घकालिक कानूनी और प्रवासन ढाँचा अब भी अनुपस्थित है। इसके लिए समावेशी राष्ट्रीय अनुकूलन योजनाएँ (NAPs) और जलवायु वित्त पोषण की तुरंत आवश्यकता है।
जलवायु शरणार्थियों की सुरक्षा के उपाय
विशेषज्ञों का सुझाव है कि या तो 1951 शरणार्थी सम्मेलन को अद्यतन किया जाए या संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत एक नया फ्रेमवर्क तैयार किया जाए जो जलवायु विस्थापन को मान्यता दे। कुछ क्षेत्रीय समझौते पहले से इस दिशा में आगे हैं, जैसे 1969 का अफ्रीकी संघ सम्मेलन और 1984 की कार्टाजेना घोषणा, जो प्राकृतिक आपदाओं को शरण का आधार मानते हैं। न्यूज़ीलैंड ने जलवायु मानवीय वीज़ा की अवधारणा अपनाई है और किरीबाती ने फिजी में भूमि खरीदी है—ऐसी वैश्विक सोच की आज आवश्यकता है।
निष्कर्ष
IDMC की 2025 रिपोर्ट एक चेतावनी है। जैसे-जैसे जलवायु आपदाएँ बढ़ती जा रही हैं, वैसे-वैसे कानूनों में सुधार, जलवायु वित्त में वृद्धि और विस्थापन को जलवायु नीति में शामिल करने की आवश्यकता भी बढ़ती जा रही है। संकट अब काल्पनिक नहीं, बल्कि वर्तमान में लाखों को विस्थापित कर चुका है—और भारत सबसे प्रभावित देशों में शामिल है। यदि नीति में तेजी से बदलाव नहीं हुआ, तो 21वीं सदी का सबसे बड़ा प्रवासन संकट जन्म ले सकता है।
STATIC GK SNAPSHOT
विषय | विवरण |
रिपोर्ट जारी करने वाली संस्था | आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र (IDMC) |
2024 में कुल विस्थापन | 4.58 करोड़ (वैश्विक स्तर पर), अब तक का सर्वाधिक |
भारत में विस्थापन (2024) | 54 लाख (मुख्यतः बाढ़ के कारण) |
भारत में संघर्ष हॉटस्पॉट | मणिपुर – 1,000 लोग हिंसा के कारण विस्थापित |
IDMC की स्थापना वर्ष | 1998, नॉर्वेजियन रिफ्यूजी काउंसिल (NRC) के तहत |
जलवायु शरणार्थी की कानूनी स्थिति | 1951 शरणार्थी सम्मेलन में मान्यता प्राप्त नहीं |
अफ्रीकी क्षेत्रीय फ्रेमवर्क | 1969 OAU सम्मेलन (जलवायु के आधार पर शरण की अनुमति) |
लैटिन अमेरिकी फ्रेमवर्क | 1984 कार्टाजेना घोषणा (प्राकृतिक आपदा को आधार मानती है) |
COP27 उपलब्धि | लॉस एंड डैमेज फंड 2025 में चालू |
भारत में भूमि क्षरण प्रभाव | 2015–2019 के बीच 30.51 मिलियन हेक्टेयर भूमि प्रभावित |