एक संकट में घिरी पारंपरिक कला
जैसे-जैसे 38वें राष्ट्रीय खेल नजदीक आ रहे हैं, केरल की प्राचीन युद्धकला कलरिपयट्टु एक बड़े विवाद के केंद्र में आ गई है। भारतीय कलरिपयट्टु महासंघ ने भारतीय ओलंपिक संघ (IOA) के उस निर्णय का कड़ा विरोध किया है जिसमें इस पारंपरिक खेल को प्रतियोगी खेल से हटाकर केवल प्रदर्शनी खेल के रूप में शामिल किया गया है। इस आखिरी क्षण के बदलाव से खिलाड़ियों में निराशा फैल गई है और पारंपरिक खेलों की उपेक्षा को लेकर सार्वजनिक बहस छिड़ गई है।
कलरिपयट्टु की विरासत
कलरिपयट्टु को विश्व की सबसे पुरानी युद्धकलाओं में से एक माना जाता है, जिसकी उत्पत्ति 11वीं–12वीं सदी ईस्वी में हुई मानी जाती है। “कलरी” का अर्थ है प्रशिक्षण स्थल और “पयट्टु” का अर्थ है अभ्यास या युद्ध। केरल में जन्मी यह कला शारीरिक प्रशिक्षण, आत्मरक्षा, हथियारों का प्रयोग और औषधीय विधियों का अनूठा संयोजन है। यह युद्धकला केरल के सामंती काल में योद्धाओं की सैन्य शिक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा रही है।
IOA का निर्णय और उसका प्रभाव
दिसंबर 2024 में IOA ने घोषणा की कि कलरिपयट्टु अब पदक खेल नहीं रहेगा। इसके स्थान पर यह केवल एक प्रदर्शनी के रूप में दिखाया जाएगा। इससे 18 राज्यों के लगभग 200 खिलाड़ियों पर सीधा असर पड़ा है। खिलाड़ियों और विशेषज्ञों ने इस निर्णय की आलोचना करते हुए कहा कि यह न केवल कला के महत्व को कम करता है, बल्कि वर्षों की मेहनत को भी नकार देता है। कई लोगों के अनुसार यह स्थानीय खेलों को वैश्विक खेलों के पक्ष में हाशिए पर डालने की प्रवृत्ति का हिस्सा है।
न्यायिक हस्तक्षेप से मिली उम्मीद
15 जनवरी 2025 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस निर्णय की समीक्षा का आदेश दिया। यह कलरिपयट्टु समुदाय के लिए आशा की किरण लेकर आया। अदालत ने यह भी कहा कि भारत के पारंपरिक खेलों को उचित मंच और मान्यता मिलनी चाहिए, खासकर जब वे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से इतने समृद्ध हों।
उपनिवेश काल के पतन के बाद पुनरुत्थान
ब्रिटिश शासनकाल में जब स्वदेशी युद्धकलाओं को हतोत्साहित किया गया, तब कलरिपयट्टु ने भी गिरावट देखी। लेकिन 20वीं सदी में कुछ समर्पित गुरुक्कलों (शिक्षकों) ने इसे दोबारा सार्वजनिक जीवन में लाने का प्रयास किया। आज यह केरल में विभिन्न स्कूलों और सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा खेल और प्रदर्शन कला दोनों रूपों में सिखाया जा रहा है।
तकनीक, दर्शन और अभ्यास
कलरिपयट्टु की शिक्षा केवल युद्ध तक सीमित नहीं है। इसमें शारीरिक लचीलापन, श्वास नियंत्रण, उपचार विधियां, हथियारों की महारत और मर्म चिकित्सा (शरीर के महत्वपूर्ण बिंदु) की शिक्षा दी जाती है। इसका गुरु–शिष्य परंपरा आधारित तंत्र छात्रों में अनुशासन, विनम्रता और सम्मान का भाव उत्पन्न करता है।
वैश्विक पहुंच और संस्थागत समर्थन
हाल के वर्षों में कलरिपयट्टु को वैश्विक मंच पर भी सराहना मिली है, जहां इसे नृत्य, थिएटर और फिल्मों में अपनाया गया है। केरल में कलरिपयट्टु अकादमी की स्थापना इस पारंपरिक कला को संरक्षित और संस्थागत बनाने की दिशा में एक बड़ा कदम है। फ्रांस, यूके और जापान जैसे देशों से बढ़ती रुचि इसका वैश्विक भविष्य उज्ज्वल करती है।
एक विरासत जिसकी रक्षा आवश्यक है
कलरिपयट्टु केवल एक खेल नहीं, बल्कि भारत की युद्धकला विरासत है—एक जीवंत प्रतीक है अनुशासन, परंपरा और पहचान का। इसके प्रतियोगी दर्जे को घटाने का निर्णय एक राष्ट्रीय संवाद को जन्म दे चुका है, जिसमें खेलों में सांस्कृतिक संरक्षण पर जोर दिया जा रहा है। इस संघर्ष से उम्मीद की जा रही है कि कलरिपयट्टु को उसका उचित स्थान फिर से प्राप्त होगा और यह भावी पीढ़ियों को अपनी जड़ों से जोड़ने का कार्य करेगा।
Static GK Snapshot
विषय | तथ्य |
उत्पत्ति | केरल, 11वीं–12वीं सदी ईस्वी |
प्रशिक्षण घटक | शारीरिक युद्ध, हथियार, उपचार, लचीलापन |
सांस्कृतिक महत्व | केरल की युद्ध और आध्यात्मिक परंपरा का हिस्सा |
प्रमुख न्यायिक हस्तक्षेप | दिल्ली उच्च न्यायालय, जनवरी 2025 – IOA निर्णय की समीक्षा |
संबद्ध संस्था | कलरिपयट्टु अकादमी, केरल |